न जाने क्यूं
बचपन की बौनी स्मृतियां
आज फिर-
विशालकाय हो उठीं हैं।
खरोंच रही हैं अपनी
टेढ़ी- मेढ़ी उंगलियों से- वर्तमान
जख्मों से लहू नहीं
जिन्दगी झांक रही है।
पीड़ा दर्द नहीं
खुशी आंक रही है।
आज फिर-
तुम्हारी याद आ रही है।
शुभा सक्सेना
शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010
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शुभा जी इस कविता में मुझे अपनी माँ दिखती है
जवाब देंहटाएंपीड़ा दर्द नहीं
जवाब देंहटाएंखुशी आंक रही है।
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दर्द जब सीमा पार कर जाती है तो वो निस्कृय हो जाती है । और फिर उसका वहाव खुशी के तरफ ही होता है............
उत्तम
अतिउत्तम