गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

उदासी

रात की हथेली पर
चांद -
अपना चिबुक
टिकाये बैठा है।
उदास चाँदनी
नदी में डूबने
उतर आयी है।
हवा खामोश
ज़ुबां सीये बैठी है.
पत्ते डाँट खाये
बच्चे से गुमसुम हैं
कहीं कोई हरकत या हलचल नहीं है
बस -यूँ ही
ये आँसू
आदतन बह रहे हैं.

-शुभा सक्सेना

रात गुनगुनाती है

गुलाबी ठन्ड
मन्द- मन्द बहता पवन
छेड्ता है जब
रश्मि-तार
तब छाया गाती है।
दूधिया चांदनी
जब थपकाती है
पूर्णिमा का चांद
तब रात गुनगुनाती है।
तुम्हारा स्नेहिल स्पर्श
साथ हो जब
नींद तब आती है।

शुभा सक्सेना

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

रिश्ते

अकसर जिस धरती के ऊपर
हम पांव टिका कर खडे होते है
उसी को रौन्धते हुए
बढाते है हम अपना
अगला कदम।
या यूं कहें
अकसर जो हमे सहरा देते हैं
उन्हीं की बेकद्री करते हुए
ढूंढते हैं हम अगला सहरा।
अगर मुड़ कर देखें तो
नज़र आएगी धुन्धले पद्चिन्हों
की एक लम्बी कतार।

शुभा सक्सेना

याद

चाँदनी का साया
पास आया
कतराया
डूब गया
नदी
झिलमिलाने लगी
हवा
ठिठकी, रुकी
बहकी
खिलखिलाने लगी
तुम
मिले, बिछड़े
चले गये
याद आने लगे।

-शुभा सक्सेना

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

माँ

न जाने क्यूं
बचपन की बौनी स्मृतियां
आज फिर-
विशालकाय हो उठीं हैं।
खरोंच रही हैं अपनी
टेढ़ी- मेढ़ी उंगलियों से- वर्तमान
जख्मों से लहू नहीं
जिन्दगी झांक रही है।
पीड़ा दर्द नहीं
खुशी आंक रही है।
आज फिर-
तुम्हारी याद आ रही है।

शुभा सक्सेना

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

माफ़ करना

माफ़ करना
अगर मैंने
तुम्हारी आंखों से
बहते तुम्हारे सपने को
अपनी आंखों मे जगह दी।

माफ़ करना
अगर मैनें
तुम्हारी बेज़ुबानी को
अपनी आवाज़ दी।

अगर मेरे इस कुकृत्य से
तुम्हारे आत्मसम्मान को ठेस पहुंची हो
तो लो आज मैं लौटाती हूं
हमारे सपने की किरचें
और पिन्जरे में बन्द तुम्हारे शब्द।

शुभा सक्सेना